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बच्चों के लिए शिक्षा और दीक्षा दोनों ही आवश्यक

शिक्षा से कोई भी बच्चा वंचित न रह जायें,  इसका हम सबको ध्यान रखना चाहिए

आकाश ज्ञान वाटिका, देहरादून, ११ अगस्त २०१९।
[highlight]”शिक्षण एक बहुत ही महान पेशा है जो किसी व्यक्ति के चरित्र, क्षमता, और भविष्य को आकार देता हैं। अगर लोग मुझे एक अच्छे शिक्षक के रूप में याद रखते हैं, तो मेरे लिए ये सबसे बड़ा सम्मान होगा।” – डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम[/highlight]

माता शत्रुः पिता बैरी, येन बालौ न पाठितः।
न शोभते सभा मध्ये, हंस मध्ये बको यथा।।

‘शिक्षा’ तात्पर्य है-‘सीखना और सिखाना’। अतः शिक्षा एक प्रक्रिया है, इसमें सीखने और सिखाने की प्रक्रिया चलती रहती है। मानव जीवन में जन्म के साथ ही शिक्षा प्रक्रिया आरम्भ होकर आजीवन चलती रहती है।
आज शिक्षा और समाज के पारस्परिक संबंधों को देखने की आवश्यकता है। प्राचीन काल में जो समाज व्यवस्था थी वह आज नहीं है। विज्ञान युग के व्यापक प्रसार से दूर-दराज के देश नजदीक आ गए हैं। समाज व्यापक बनता जा रहा है और इसी व्यापक समाज की दृष्टि से शिक्षा का विचार करना चाहिए। शिक्षण अपने-आप में एक विस्तृत संसार है ।
आकाश ज्ञान वाटिका परिवार शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता है। शिक्षा से कोई भी बच्चा वंचित न रह जायें, इसका हम सबको ध्यान रखना चाहिए।
बच्चों के जीवन में किताबी शिक्षा के साथ-साथ उनको इस संसार में जीवन जीने की दीक्षा देना भी जरूरी होता है। जिन बच्चों को बचपन से ही शिक्षा-दीक्षा का सही ज्ञान नहीं होता है, वह निर्बल और अज्ञानी बनते जाते हैं। जो निर्बल अथवा प्रभावहीन होता है उसे कोई पूछता नहीं, सभी उसे अपना शिकार बनाने की कोशिश किया करते हैं। जीवन में निर्बल होने का अर्थ है संसार के कुटिल तथा स्वार्थी लोगों के दबाव में जीवन जीने को मजबूर होना। निर्बलता और प्रभावहीनता का कारण है, अज्ञान और अज्ञान का कारण है अशिक्षा और संसार की गतिविधि से दूर रहना। जो अशिक्षित है वह किसी से भी ठीक तरह से बात करने में असमर्थ रहता है और दूसरों की बात भी ठीक प्रकार से समझ नहीं सकता। अध्ययन द्वारा महापुरुषों के विचारों तथा अनुभवों का लाभ नहीं उठा सकता, इसलिये ज्ञान प्राप्त करने के लिये शिक्षा बहुत आवश्यक है। केवल शिक्षा ही ज्ञान की संवाहिका नहीं हो सकती। किसी ने उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर ली किन्तु वह समाज से दूर-दूर, संसार की गतिविधियों से विरत, आत्मलीन जैसा रहता है; न लोगों के सम्पर्क में आता है और न विचारों का आदान-प्रदान ही करता है, तो उसकी शिक्षा उसके क्या काम आ सकती है ? इस प्रकार एकाकी रहकर वह अपनी विद्या का लाभ न स्वयं उठा पाता है और न किसी दूसरे को दे पाता है। संसार में कहाँ क्या हो रहा है ? लोगों की विचारधारा किस ओर बह रही है, वर्तमान परिस्थितियों में हमें क्या और कैसे करना चाहिये ? इन सबका ज्ञान प्राप्त किये बिना अपनी दिशा, कार्यपद्धति और साधनों का निर्णय नहीं किया जा सकता। जिसे अपने आस-पास की गतिविधियों तथा परिस्थितियों की जानकारी नहीं, वह शिक्षित होते हुए भी अज्ञानी ही माना जायेगा। इसलिये ज्ञान प्राप्त करने के लिये शिक्षा पाना और संसार का अध्ययन करते रहना बहुत आवश्यक है। शिक्षा का शुभारम्भ बचपन से होता है। पाँच-छः वर्ष की आयु में जबकि प्रायः शिक्षा प्रारम्भ की जाती है, बच्चों के पास अपनी स्वयं की समझ नहीं होती है। वह अपना अच्छा-बुरा भी नहीं समझ पाते। साथ ही उनमें पढ़ने की स्वतः प्रेरणा भी नहीं होती है। उस समय तो उन्हें खेलना और शरारत करना ही पसन्द होता है। पढ़ाई उनके लिये सर्वथा नवीन तथा स्वभाव अथवा अभ्यास के विरूद्ध होती है। तभी वे उस विषय में अभिभावकों तथा अध्यापकों को काफी दिनों तक परेशान करते रहते हैं, किन्तु जब धीरे-धीरे अन्य बच्चों के साथ अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर नियमित रूप से अपने-आप पाठशाला जाने लगते हैं। उनका अभ्यास उस दिशा में ढल जाता है, किन्तु इसके लिये अभिभावकों को काफी परिश्रम करना पड़ता है। उन्हें उस समय व सन्दर्भ में बहुत सावधान तथा सतर्क रहना होता है। बच्चे की गाड़ी जब चल निकलती है, तो फिर वे असावधान अथवा उदासीन हो जाते हैं। पढ़ाई के सम्बन्ध में बच्चों की गाड़ी चल निकलने के बाद अभिभावकों का तटस्थ हो जाना अथवा यह सोचकर असावधान हो जाना कि अब तो वह स्कूल जाने ही लगा है, अपने को परेशान होने की क्या जरूरत है। अब बच्चा और अध्यापक आप निपटते रहेंगे; कदापि ठीक नहीं । अभिभावकों की इस उदासीनता से बच्चों की शैक्षणिक प्रगति मन्द हो जाती है। अभिभावकों को, जब तक बच्चे पूरी तरह से आत्म-प्रबुद्ध न हो जायें, उनकी पढ़ाई और प्रगति में पूरी-पूरी दिलचस्पी लेते रहना और प्रेरणा देते रहना चाहिये। इससे वे उत्तरोत्तर तेजी से बढ़ते चले जाते हैं। अभिभावकों को चाहिये कि वे नित्यप्रति सायंकाल घण्टा-आध घण्टा बच्चों की पढ़ाई-लिखाई देखने के लिये बैठा करें। इस समय वे उनसे स्कूल में क्या पढ़ाई चल रही है, कितना पाठ्यक्रम हो चुका है और कितना शेष है, इसका पता लगाया करें। साथ ही बच्चों से उनके द्वारा पढ़े गए पाठों के विषय में तर्क-वितर्क करके यह पता लगाया करें कि बच्चे जो पाठ पढ़ चुके होते हैं, वह याद भी करते हैं या नहीं ? उनकी कापियाँ देखा करें और पता लगाया करें कि वे अपना काम ठीक से कर रहें हैं या नहीं ? जो गलतियाँ ठीक की जाती हैं, उन्हें बार-बार लिख कर अभ्यास कर लेते हैं या यों ही छोड़ देते हैं। इसके अतिरिक्त अभिभावकों को चाहिये कि वे बच्चों से पढ़ाई के विषय में इस प्रकार बात-चीत किया करें, जिसमें वे शिक्षा की गरिमा अनुभव करें और प्रेरणा पायें। इसी समय बच्चों को स्वयं भी कुछ न कुछ पढ़ाना चाहिये और कभी-कभी उनकी परीक्षा लेकर यह पता भी करना चाहिये कि वे किस गति से प्रगति कर रहे हैं। इस प्रकार बच्चों की पढ़ाई में स्वयं भाग लेकर उनकी अभिरूचि बढ़ाते रहना चाहिये, जो अभिभावक बच्चों की पढ़ाई में स्वयं रूचि नहीं लेते, उनके बच्चे प्रायः पढ़ने-लिखने में कम ही रूचिवान हो पाते हैं। बच्चों की शिक्षा के लिये केवल मात्र अध्यापकों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिये। अध्यापकों के लिये कोई एक ही विद्यार्थी तो नहीं होता, उन्हें तो पचासों विद्यार्थियों को एक साथ देखना होता है।
यह तो रही पुस्तकीय शिक्षा की बात। इसके अतिरिक्त एक शिक्षा और है जिसे अनुभवीय अथवा यथार्थ शिक्षा कहा जा सकता है। वह यह कि बच्चों को संसार का यथार्थ अथवा व्यावहारिक ज्ञान कराया जाये। इसके दो तरीके हैं- एक यह है कि बच्चों को अपने साथ बाजार, सभा, सोसाइटियों तथा मेलों, उत्सवों में ले जाना चाहिये। ऐसे अवसरों पर अभिभावक बाजार की चीजों, उनके भावों तथा उपयोग के विषय में बतलावें और बतायें कि लोग एक-दूसरे से किस प्रकार बर्ताव तथा व्यवहार करते हैं ? यह भी उन्हें बतलाना तथा समझाना चाहिये कि समाज में बिना एक दूसरे के वास्तविक जीवन सम्भव नहीं है। व्यावहारिक ज्ञान के लिये बच्चे बड़े ही उत्सुक तथा जिज्ञासु होते हैं। अभिभावकों को चाहिये कि वे नित्य-प्रति प्रातः-सायं बच्चों को बस्ती से दूर कुछ देर के लिये घुमाने ले जायें। ऐसे अवसर पर उन्हें प्राकृतिक दृश्यों, पक्षियों सामान्य वनस्पतियों तथा पशुओं के बावत बतलायें। साथ ही सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रों तथा एकान्त शून्य आदि के आधार पर आध्यात्मिक जिज्ञासा भी जगाते रहना चाहिये। इस प्रकार बच्चों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ व्यावहारिक जगत और आध्यात्म ज्ञान का क्रम बढ़ता चलेगा। शिक्षा का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान अर्जित करना ही नहीं होता है, शिक्षा का अर्थ देखा जाये तो एक तरह से बृहद बन जाता है, क्योंकिशिक्षा पारिवारिक रिश्तों को निभाने की, समाज में किस तरह से रहना है उसे समझाने की, माता-पिता, गुरूजनों के साथ कैसे बातें व व्यवहार किया जाता है, देश के प्रति निष्ठा तथा सभी के प्रति प्यार, इस प्रकार की कई शिक्षायें होती हैं, जिन्हें जीवन में अर्जित करने के उपरान्त ही वास्तविक शिक्षा का सही ज्ञान हो पाता है। जिस इंसान में सारी शिक्षायें समाहित हो जाती है, वही एक सिद्ध पुरूष कहलाता है। इसलिये जीवन में पुस्तकीय शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक शिक्षा-दीक्षा का होना भी अति आवश्यक होता है।

“अंततः वास्तविक अर्थों में शिक्षा सत्य की खोज है। यह ज्ञान और आत्मज्ञान से होकर गुजरने वाली एक अंतहीन यात्रा हैं।”   – डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम

घनश्याम चन्द्र जोशी
सम्पादक

akashgyanvatika.com

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Ghanshyam Chandra Joshi

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